(राष्ट्रीय मुद्दे) मॉब लिंचिंग : कानून और समस्या (Mob Lynching: Law and Problems)
एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)
अतिथि (Guest): विभूति नारायण राय (पूर्व डी.जी.पी. उत्तर प्रदेश), प्रो. अपूर्वानंद (वरिष्ठ लेखक और पत्रकार)
चर्चा में क्यों?
बीते दिनों 27 मार्च को, देश के तमाम हिस्सों से राजधानी दिल्ली में एकत्रित मुस्लिम महिलाओं ने भारी विरोध प्रदर्शन किया। इन महिलाओं की मांग थी कि देश के सभी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में 'मॉब लिंचिंग' के खिलाफ कानून बनाने का वायदा करें।
- इसके अलावा कांग्रेस पार्टी ने भी अपने घोषणा पात्र में ये वादा किया कि यदि उनकी पार्टी सत्ता-वापसी करती है तो वो 'मॉब लिंचिंग' के खिलाफ कानून लाएगी।
क्या है 'मॉब लिंचिंग'?
लिंचिंग 'सामूहिक नफ़रत' से जुड़ा एक ऐसा अपराध है जिसमें एक भीड़ क़ानून के दायरे से बाहर जाकर, महज़ शक के आधार पर, किसी तथाकथित 'अपराधी' को सजा दे देती है।
- दरअसल, मॉब लिंचिंग 'पहचान की राजनीति' का एक परिणाम है जिसमें कोई एक समूह या कौम किसी दूसरे कौम पर अपना प्रभुत्व थोपने की कोशिश करती है।
- ऐसे घटनाओं में भीड़ बहुसंख्यक लोकतंत्र के एक हिस्से के तौर पर दिखती है जहां वह ख़ुद ही क़ानून का काम करती है, खाने से लेकर पहनने तक सब पर अपना नियंत्रण जताना चाहती है।
मॉब लिंचिंग की ऐतिहासिकता
मॉब लिंचिंग दरअसल आज से नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से किसी न किसी रूप में हो रही है। शरुआत में, लिंचिंग जैसे जघन्य अपराध अमेरिका में देखने को मिलते थे। एक वक़्त था जब अमेरिका में नस्ल-भेद की समस्या अपने चरम पर थी। उस दौरान, यदि कोई 'गैर-श्वेत' अपराध करता था तो उसे सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाती थी। वहां के 'श्वेत' लोगों का मानना था कि इसके ज़रिये वे 'पीड़ित' को न्याय देने का काम कर रहे हैं।
आंकड़े क्या कहते हैं?
पिछले साल केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि मॉब लिंचिंग पर कोई सम्मिलित आंकड़ा सरकार के पास नहीं है। उन्होंने कहा कि 14 से ज्यादा राज्यों ने नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो से इस तरह की घटनाओं का डेटा शेयर नहीं किया है।
- साल 2014 से 2017 तक के रिकॉर्ड पर नजर डालें तो महज 9 राज्यों का ही आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध है।
- इन आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2014 से 3 मार्च 2018 के बीच महज़ इन नौ राज्यों में मॉब लिंचिंग की 40 घटनाएं हुई थीं जिसमें 45 लोग मारे गए थे।
- डेटा-जर्नलिज्म वेबसाइट, इंडिया स्पेंड्स के मुताबिक़ साल 2010 से गो-हत्या के शक में अब तक भीड़ द्वारा हमले की 87 घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें 34 लोग की मौत हुई और 158 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। पीड़ितों में अधिकांशतः मुस्लिम और दलित शामिल हैं।
क्यों हो रही हैं ऐसी घटनाएँ?
नफ़रत की राजनीति: नफ़रत की राजनीति हिंसात्मक भीड़ की एक बड़ी वजह है। 'भीड़तंत्र' तो वोट बैंक के लिये प्रायोजित हिंसा या धर्म के नाम पर करवाई गई हिंसा का एक जरिया है।
तमाम समुदायों के बीच आपसी अविश्वास: बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच अविश्वास बढ़ता जा रहा है। एक कौम के लोग दूसरे कौम को शक के निगाह से देख रहे हैं। और फिर मौका मिलने पर वे एक-दूसरे से बदला लेने के लिये भीड़ को उकसाते हैं। सरकारी तंत्र की विफलता ऐसी घटनाओं में आग में घी का काम करता है।
समाज में व्याप्त गुस्सा: लोगों के मन में शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था या फिर सुरक्षा को लेकर गुस्सा हो सकता है। ये गुस्सा भी इन घटनाओं को किसी न किसी रूप में बढ़ावा दे रहा है। जो कि बाद में उन्मादी भीड़ के ज़रिये देखने को मिलता है।
अफवाह और जागरूकता की कमी: अफ़वाह और जागरूकता की कमी के चलते 'लिंचिंग' की जो घटनाएं हुईं उनमें भीड़ का अलग ही रूप देखने को मिलता है। इसमें भीड़ के गुस्से के पीछे एक गहरी चिंता भी दिखाई देती है। बच्चे चोरी होना किसी के लिए भी बहुत बड़ा डर है। यहां हिंसा ताक़त से नहीं बल्कि घबराहट से जन्म लेती है।
तकनीक का दुरुपयोग: इस तरह की 'भीड़तंत्र' में सोशल मीडिया का दुरुपयोग एक बड़ा कारक है। देशभर के अलग-अलग हिस्सों से सामने आ रहे मॉब लिंचिंग के मामले बताते हैं कि वॉट्सएप इसकी सबसे बड़ी वजह रहा है।
स्थानांतरण एक बड़ी समस्या: अक्सर आर्थिक ज़रूरतों के कारण लोग एक इलाके से दूसरे इलाकों में आकर बसने लगते हैं। इन लोगों को रहने की जगह तो मिल जाती है, लेकिन उन पर लोगों को विश्वास नहीं हो पाता। तमिलनाडु में इस तरह की कुछ घटनाएं देखने को मिली थीं।
इन घटनाओं के दुष्प्रभाव क्या-क्या हैं?
सबसे पहली बात तो ये कि 'मॉब लिंचिंग' भारत के संविधान में निहित मूल्यों के खिलाफ है। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, और मॉब लिंचिंग के कारण इन अधिकारों का उल्लंघन होता है।
- इससे पीड़ितों में उप-राष्ट्रवाद की भावना जन्म लेने लगती है।
- कट्टरपंथी और चरमपंथी संगठन इस तरह की घटनाओं से बने माहौल का लाभ उठाते हैं।
- इससे समाज की एकजुटता प्रभावित होती है और बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक का माहौल बनता है।
- यह विदेशी और घरेलू दोनों प्रकार के आर्थिक निवेशों को प्रभावित करता है जिससे रेटिंग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने मॉब लिंचिंग के खिलाफ भारत को चेतावनी दी।
- यह सीधे तौर पर आंतरिक स्थानांतरण को बाधित करता है जो अर्थव्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
- इस तरह के खतरे से निपटने के लिए तैनात बड़े संसाधन राज्य के खजाने पर अतिरिक्त बोझ डालते हैं।
'मॉब लिंचिंग' से निपटने के लिए मौज़ूदा क़ानून
लिंचिंग जैसी घटनाओं से निपटने के लिए कोई स्पेशल क़ानून नहीं है।
- इसे IPC की अलग-अलग धाराओं के तहत ही डील किया जाता है। इसमें धारा 302, 307, 323, 147, 148, 149 और 34 शामिल हैं।
- सीआरपीसी की धारा 223A में भी इस तरह के गुनाह के लिये बेहतर क़ानून के इस्तेमाल की बात तो कही गई है, लेकिन स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा गया है।
- मॉब लिंचिंग के मामले में ये सभी कानून एक साथ लागू किए जा सकते हैं। इनमें दोषियों को उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सजा का प्रावधान है। मगर अब और भी कड़े कानून बनाने की मांग उठने लगी है।
नए क़ानून की ज़रूरत क्यों है?
अलग से क़ानून न होना: मॉब लिंचिंग जैसे अपराध से निपटने के लिए अलग से क़ानून न होने के कारण इसे IPC की अलग-अलग धाराओं के तहत रोकने की कोशिश की जाती है, जो कि नाकाफ़ी है।
मौज़ूदा क़ानूनों का खराब क्रियान्वयन: वैसे तो देश में काफी कानून हैं, लेकिन उन कानूनों का ईमानदारीपूर्वक पालन न करने से अपराधों पर लगाम नहीं लग पाता है। कार्यपालिका के लचर रवैय्ये के कारण ये अपराध फल-फूल रहा है। ऐसे में अगर नए क़ानून के ज़रिये कार्यपालिका और जवाबदेह बनाया जाए तो अपराध पर नकेल लग सकती है।
राजनीतिक दखलंदाज़ी: राजनीतिक दखलंदाज़ी और अपराधियों की पीठ थपथपाने की प्रवृत्ति के कारण लिंचिंग की घटनाओं को और बढ़ावा मिल रहा है। ऐसे में, नए कानून की ज़रुरत महसूस होना लाज़िमी है।
इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का क्या कहना है?
मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए जुलाई 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद से मॉब लिंचिंग के खिलाफ एक नया और सख्त कानून बनाने को कहा।
- साथ ही अदालत ने राज्य सरकारों को सख्त आदेश दिया कि वे संविधान के मुताबिक काम करें।
- अदालत ने सरकारों से कहा था कि वे हर जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर के एक अधिकारी की नियुक्ति करें और खुफिया सूचना जुटाने के लिए एक विशेष कार्य बल बनाएं।
- कोर्ट ने सोशल मीडिया में चल रही चीजों पर पैनी नजर रखने को भी कहा ताकि नफ़रत फैलाने वाले सन्देश, बच्चा चोरी या मवेशी तस्करी के संदेह में होने वाले मॉब लिंचिंग को रोका जा सके।
- इन घटनाओं के लिये निवारक, उपचारात्मक और दंडनीय उपायों को निर्धारित किया गया है।
क्या कदम उठाये गए हैं?
इस तरह के मामलों पर रिपोर्ट देने के लिए गृह मंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिसमूह यानी जीओएम और गृह सचिव राजीव गाबा की अगुवाई में एक समिति का गठन किया गया है।
- समिति ने इस विषय पर विचार–विमर्श करने के बाद अपनी रिपोर्ट गृह मंत्री को सौंप दी है। इस रिपोर्ट में, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को ‘समयबद्ध तरीके’ से काम करने की ज़रुरत बताई गयी है।
- गृह मंत्रालय ने राज्य सरकारों को परामर्श जारी कर इन घटनाओं पर अंकुश लगाने को कहा है। परामर्श में कहा गया कि सभी राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश इन अफवाहों पर कड़ी नजर रखें और इन पर अंकुश लगाने के लिए कडे कदम उठाएं।
- सरकार द्वारा अफवाहों को रोकने के लिये जल्द ही एक सोशल मीडिया पॉलिसी बनाई जाएगी, देश के आईटी मंत्रालय को इसका ड्राफ्ट तैयार करने का ज़िम्मा सौंपा गया है।
- इन क्षेत्रों में जागरूकता अभियान चलाकर विश्वास बढाने के उपाय करने पर भी जोर दिया गया है।
- सिविल सोसाइटियों ने भी 'नॉट इन माय नाम' जैसे अभियान चलाये हैं।
- खुद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों ने भी जागरूकता के लिए कई कदम उठाये हैं।
- मणिपुर देश का पहला ऐसा राज्य है जिसने लिंचिंग के खिलाफ एक उल्लेखनीय कानून पारित किया है।
आगे क्या किया जाना चाहिए?
कानूनों का बेहतर क्रियान्वयन करते हुए त्वरित कार्यवाही की जानी चाहिये।
- अपराधियों को राजनैतिक शरण नहीं मिलना चाहिये।
- पुलिस सुधार समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
- इस तरह की घटनाओं में सोशल मीडिया द्वारा फैलाई गई अफवाहों की बड़ी भूमिका होती है अतः इन पर लगाम लगाने और जागरूकता फैलाने की सख्त ज़रूरत है।
- भीड़ द्वारा की गई हत्या की पहचान करनी होगी और फिर उसके बाद इसके अलग से असरदायक कानून बनाना पड़ेगा।